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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
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सुनसान के सहचर

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लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा


आहार हल्का हो जाने से नींद भी कम हो जाती है। फल अब तो दुर्लभ हैं; पर शाकों से भी फलों वाली सात्विकता प्राप्त हो सकती है। यदि शाकाहार पर रहा जाए, तो साधक के लिए चार-पाँच घण्टे की नींद पर्याप्त हो जाती है। 

जाड़े की रात लम्बी होती है। नींद जल्दी ही पूरी हो गयी। आज चित्त कुछ चंचल था। यह साधना कब तक पूरी होंगी? लक्ष्य कब तक प्राप्त होगा? सफलता कब तक मिलेगी? ऐसे-ऐसे विचार उठ रहे थे। विचारों की उलझन भी कैसी विचित्र है, जब उनका जंजाल उमड़ पड़ता है, तो शान्ति की नाव डगमगाने लगती है। इस विचार प्रवाह में न भजन बन पड़ रहा था, न ध्यान लग रहा था। चित्त ऊबने लगा। इस ऊब को मिटाने के लिए कुटिया से निकला और बाहर टहलने लगा। आगे बढ़ने की इच्छा हुई। पैर चल पड़े। शीत तो अधिक थी, पर गंगा माता की गोद में बैठने का आकर्षण भी कौन कम मधुर है, जिसके सामने शीत की परवाह हो। तट से लगी हुई एक शिला, जल राशि के काफी भीतर तक धंसी पड़ी थी। अपने बैठने का वही प्रिय स्थान था। कम्बल ओढ़कर उसी पर जा बैठा। आकाश की ओर देखा, तो तारों ने बताया कि अभी दो बजे हैं। 

देर तक बैठा तो झपकी आने लगी। गंगा का कल-कल, हर-हर शब्द भी मन को एकाग्र करने के लिए ऐसा ही है जैसा शरीर के लिए झूला-पालना। बच्चे को झूला-पालने में डाल दिया जाए तो शरीर के साथ ही नींद आने लगती है। जिस प्रदेश में इन दिनों यह शरीर है, वहाँ का वातावरण इतना सौम्य है कि वह जलधारा का दिव्य कलरव ऐसा लगता है, मानों वात्सल्यमयी माता लोरी गा रही हो। चित्त एकाग्र होने के लिए यह ध्वनि लहरी कलरव नादानुसंधान से किसी भी प्रकार कम नहीं है। मन को विश्राम मिला। शान्त हो गया। झपकी आने लगी। लेटने को जी चाहा। पेट में घुटने लगाये। कम्बल ने ओढ़ने-बिछाने के दोनों का काम साध लिया। नींद के हलके झोंके आने आरम्भ हो गये। 

लगा कि नीचे पड़ी शिला की आत्मा बोल रही है। उसकी वाणी कम्बल को चीरते हुए कानों से लेकर हृदय तक प्रवेश करने लगी। मन तन्द्रित अवस्था में भी ध्यानपूर्वक सुनने लगा। 

शिला की आत्मा बोली-"साधक ! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता है? भगवान् के दर्शन से क्या भक्तिभावना में कम रस है? लक्ष्य प्राप्ति से क्या यात्रा- मंजिल कम आनन्ददायक है? फल से क्या कर्म का माधुर्य फीका है? मिलन से क्या विरह में कम गुदगुदी है? तू इस तथ्य को समझ। भगवान् तो भक्त से ओत-प्रोत ही है। उसे मिलने में देरी ही क्या है? जीव को

साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया है और झाँक-झाँक कर देखता रहता है कि भक्त, भक्ति के आनन्द में सरावोर हो रहा है या नहीं? जब वह रस में निमग्न हो जाता है तो भगवान् भी आकर उसके साथ रस-नृत्य करने लगता है। सिद्धि वह है जब भक्त कहता है- मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिए। मुझे मिलन ही नहीं विरह की अभिलाषा है। मुझे सफलता में नहीं, कर्म में आनन्द है। मुझे वस्तु नहीं, भाव चाहिए। 

शिला की आत्मा आगे भी कहती ही गई। उसने और भी कहासाधक सामने देख, गंगा अपने प्रियतम से मिलने के लिए कितनी आतुरतापूर्वक दौड़ी चली जा रही है। उसे इस दौड़ में कितना आनन्द आता है। समुद्र से मिलन तो उसका कब का हो चुका; पर उसमें रस कहाँ पाया? जो आनन्द प्रयत्न में है, भावना में है, वह मिलन में कहाँ? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन प्रयत्न को अनन्त काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है, फिर अधीर साधक तू ही क्यों उतावली करता है। तेरा लक्ष्य महान् है, तेरा पथ महान् है, तू महान् है, तेरा कार्य भी महान् है। महान् उद्देश्य के लिए महान् धैर्य चाहिए। बालकों जैसी उतावली का यहाँ क्या प्रयोजन? सिद्धि कब तक मिलेगी यह सोचने में मन लगाने से क्या लाभ?

शिला की आत्मा बिना रुके कहती रही। उसने आत्म विश्वास पूर्वक कहा-मुझे देख। मैं भी अपनी हस्ती को उस बड़ी हस्ती में मिला देने के लिए यहाँ पड़ी हूँ। अपने इस स्थूल शरीर को विशाल शिला खण्ड को-सूक्ष्म अणु बनाकर उस महासागर में मिला देने की साधना कर रही हैं। जल की प्रत्येक लहर से टकराकर मेरे शरीर के कुछ कण टूटते हैं और वे रज कण बनकर समुद्र की ओर बह जाते हैं। इस तरह मिलन की बूंद-बूंद से स्वाद ले रही हूँ, तिल-तिल अपने को घिस रही हूँ, इस प्रकार प्रेमी आत्मदान का आनन्द कितने अधिक दिन तक लेने का रस ले रही हूँ यदि उतावले अन्य पत्थरों की तरह बीच जल धारा में

पड़कर लुढ़कने लगती तो सम्भवत: कब की मैं लक्ष्य तक पहुँच जाती। फिर यह तिल-तिल अपने प्रेमी के लिये घिसने का जो आनन्द है, उससे तो वंचित ही रह गई होती। 

उतावली न कर, उतावली में जलन है, खीझ है, निराशा है, अस्थिरता है, निष्ठा की कमी है, क्षुद्रता है। इन दुर्गुणों के रहते कौन महान् बना है? साधक का पहला लक्षण है- धैर्य ! धैर्य की रक्षा ही भक्ति की परीक्षा है। जो अधीर हो गया सो असफल हुआ। लोभ और भय के, निराशा और आवेश के- जो अवसर साधक के सामने आते हैं उनमें और कुछ नहीं केवल धैर्य परखा जाता है। तू कैसा साधक है, जो अभी इस पहले पाठ को भी नहीं पढ़ा। ”

शिला की आत्मा ने बोलना बन्द कर दिया। मेरी तन्द्रा टूटी। इस उपालम्भ ने अन्त:करण को झकझोर डाला, “पहला पाठ भी कभी नहीं पढ़ा, और लगा है बड़ा साधक बनने। ” लज्जा और संकोच से सिर नीचा हो गया, अपने को समझाता और धिक्कारता रहा। सिर उठाया तो देखा, ऊषा की लाली उदय हो रही है। उठा और नित्य कर्म की तैयारी करने लगा। 

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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